ध्यान कक्ष में उपस्थित सजनों को आज समझाया गया कि जीवन के दो रास्ते हैं।
एक अविचारयुक्त अविवेक का मार्ग है, दूसरा विचारयुक्त विवेक सम्पन्न मार्ग है।
एक दुर्बुद्धि बन संसार में फँसने का मार्ग है, दूसरा स्थिर बुद्धि द्वारा संसार से
छूटने का मार्ग है। एक कवलड़ा यानि कठिनाईयों व ठोकरों भरा रास्ता है, दूसरा
सवलड़ा व सुखदायक विजय पथ है। एक क्रिया कारक और भूल का मार्ग है जो
नरक की ओर जाता है और दूसरा स्वत: सिद्ध निज परमात्म स्वरूप के यथार्थ
ज्ञान का मार्ग है जो सीधा परमधाम की ओर जाता है। इस तरह दोनों मार्ग
परस्पर जुदा हैं तथा इनमें से उत्तम विचारयुक्त विवेक सम्पन्न मार्ग पर चलने
वाला ही आत्मस्वरूप हो अपने मन सहित इस जगत पर विजय प्राप्त कर पाता है
जैसा कि सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ में भी कहा गया है:-
अव विचार जेहड़ा चलदा है सजन, चार चुफेर हार ओ खांदा है।
विचार है जित तुम्हारी ओ सजनों, हर पासियों ओ जितदा रैहंदा है।
अव विचार है जे कवलड़ा रस्ता, हर पासियों ओ ठोकरां खांदा है।
विचार है जे सवलड़ा रस्ता, सदा ही ओ जितदा रैहंदा है।
इसी संदर्भ में उन्हें आगे कहा गया कि एक इंसान विवेकशक्ति के बलबूते पर, इस
दृश्यमान जगत तथा अदृश्य आत्मा में भेद कर, मायावी यानि बाह्य रूप से
वास्तविकता को पृथक कर, सत्यज्ञान प्राप्त कर सकता है। अन्य शब्दों में इस
शक्ति के प्रयोग द्वारा वह सत् और असत् का ठीक और स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर,
इस विषयी जगत के नकारात्मक दुष्प्रभावों से विमुक्त रह सकता है और वेद
शास्त्रों में विदित ब्रह्म विचारों को धारण कर, एक विचारवान, न्यायशील इंसान की
तरह, निरासक्त जीवन जीने के योग्य बन, अपने जीवन का हर धर्म-कर्म अकर्त्ता
भाव से सम्पन्न करते हुए कर्मगति से मुक्त रह सकता है और मानव रूप में
अपनी सर्वोत्कृष्टता सिद्ध कर सकता है।
अत: इस बात को दृष्टिगत रखते हुए हमें समझना है कि आज के इस अज्ञानमय
कलुषित वातावरण में समाज में दूषित व भ्रष्ट आचार-विचार-आहार व व्यवहार के
रूप में जितनी भी अविचारयुक्त जीवन शैली प्रचलित है, उस नकारात्मकता को
हमने बिना परखे नहीं ग्रहण करते जाना अपितु उसे ग्रहण/धारण करने से पूर्व, वेद-
शास्त्रों में विदित ब्रह्म विचारों के सुदृढ़ आधार पर व अपनी विवेकशक्ति के प्रयोग
द्वारा सर्वप्रथम हमने यह जानना है कि उसमें से क्या ग्रहण/धारण करने योग्य है
व क्या नहीं। याद रखो इस प्रकार अपने विवेक द्वारा विधि/नियम/रीति के रूप में
माने जाने योग्य भाव/वस्तु/ज्ञान को ग्रहण/धारण करने पर ही हम विचारवान व
गुणशील कहलाएंगे और हमारे अन्दर सद्गुणों को ग्रहण कर सदाचारी बनने की
प्रवृत्ति लक्षित होगी। कहने का आशय यह है कि अपना जीवन चरित्र उज्ज्वल व
परम पवित्र बनाने हेतु हमें कुछ भी ग्रहण/धारण करने से पूर्व उसकी सकारात्मकता
व नकारात्मकता को परख सदा सत्य धारणा ही सुनिश्चित करनी होगी। मात्र
इतनी सी सावधानी लेने से वृत्ति-स्मृति-बुद्धि व भाव-स्वभाव रूपी बाणा निर्मल हो
जाएगा व हम सत्-वस्तु धारण कर सचखंड बसने वाले परमेश्वर से नाता जोड़ने
में सफल हो जाएंगे। इस तरह हम सत्-वादी बन सबके कल्याण के निमित्त
निष्काम भाव से परोपकार के काम करेंगे और हमारे लिए जीवन लक्ष्य प्राप्ति का
कार्य सहज हो जाएगा।