अमृता अस्पताल के विशेषज्ञों का कहना है चूल्हे से निकलने वाला धुआं और पत्थर से निकलने वाली धूल फेफडों की बीमारी का प्रमुख कारण है

फरीदाबाद(विनोद वैष्णव ) | फरीदाबाद और उसके आसपास के लोगों में फेफडों की समस्याएं हर रोज देखने को मिल रही है। इसके कई कारण बताएं जा रहें है, जैसे चूल्हे से निकलने वाला धुआं और पत्थर काटने वाली मशीन से निकलने वाली धूल।
दरअसल चुल्हे से निकलने वाला धुआं वायु में प्रदूषण पैदा करता है जिसका लोगों के स्वास्थय पर गंदा असर पडता है। खासतौर पर इसका असर उनके फेफडों पर देखने को मिलता है

वहीं इसको लेकर अमृता अस्पताल के विशेषज्ञों का कहना है कि इन प्रदूषकों के सीधे संपर्क में आने वाले लोगों को विशेष रूप से फेफड़ों की गंभीर बीमारी का खतरा बना रहता है। साथ ही डॉक्टरों का कहना है कि प्रदूषण के कारण वहां के लोगों में फेफड़ों के स्वास्थय पर असर देखने को मिला है। वहीं पिछले कई वर्षो से लोगों की अनदेखी के कारण ये बीमारी आए दिन बढ़ती जा रही है।

फरीदाबाद के अमृता अस्पताल के सेक्टर-88 पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख डॉ अर्जुन खन्ना का कहना है कि “फरीदाबाद के गांवों और दिल्ली के आसपास के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं अभी भी खाना बनाने के लिए पारंपरिक चूल्हे या अंगीठी का इस्तेमाल करती है। जिससे धुआं उत्पन्न होता है। ये धुआं वायु में प्रदूषण पैदा करता है। जिसका असर उनके साथ- साथ और लोगों के स्वास्थय पर भी पड़ता है। वे इस बात से बिल्कूल अंजान है कि चुल्हे, अंगीठी से निकलने वाला धुआं सिगरेट से निकले वाले धुएं से भी ज्यादा खतरनाक होता है। जिसका सीधा सीधा असर उनके फेफडों पर पड़ता है।

यहां एक बात गौर करने वाली है कि जो आपको जरुर पता होनी चाहिए वो है, चूल्हे से निकलने वाले धुएं के संपर्क में रहने से भी फेफड़े को उतना ही नुकसान होता है जितना कि 30 साल तक एक व्यक्ति के सिगरेट पीने का। यही कारण है कि बड़ी संख्या में युवा महिलाओं के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ रहा है। बतादें कि 30 और 40 के दशक में उनमे क्रॉनिक डिजीज देखने को मिलती थी जैसे कि “सीओपीडी”यानि ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज। 30 और 40 के दशक में महिलाएं इसका शिकार हो रही थी, जिससे वो बिल्कूल अनजान थी।

चलिए जानते है कि आखिर ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज क्या होती है।

क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज या सीओपीडी बीमारियों का एक ग्रुप है, जिसमें रोगी को सांस लेने में तकलीफ होती है। इसमें मरीज को लगातार खांसी आती रहती है जैसे किसी धूम्रपान करने वाले को होती है। ये धीरे-धीरे बढ़ने वाली बीमारी है। इसके लक्षण धीरे-धीरे दिखने शुरू होते हैं

वहीं इसके कुछ प्रमुख लक्षणॆ की बात करें तो

1 लंबे समय तक खांसी का होना

2 खांसी के साथ सफेद, पीले-भूरे या हरे रंग का बलगम भी आ सकता है। कभी-कभी इसमें खून भी आ सकता है

3 हल्का बुखार और ठंड लगना

ये बीमारी आमतौर पर बुजुर्गों में पायी जाती है जो कई दशकों से धूम्रपान कर रहे हैं। लेकिन ये बीमारी युवा महिलाओं में पाई जाती है, क्योकिं वो अपनी पुरानी परंपरा नही छोड़ना चाहती है। वो आज भी पुरानी सोच के साथ अडिग है। रसोई गैस जैसे साधन होने के बावजूद महिलाएं चुल्हा जलाना पसंद करती है। ये चुल्हा लकड़ी और जानवरों के गोबर जलता है। जिससे धुआं उत्पन्न होता है और ये धुआं वायु में प्रदूषण पैदा करता करता जो हवा के माध्यम से दूर दूर तक फैलता है। इसका भुगतान गांव के लोगों के साथ साथ शहर के लोगों को भी करना पड़ता है।
इसके आगे उन्होंने आगे कहा कि “भारत में, न तो फेफड़ों की बीमारी और न ही महिलाओं के स्वास्थ्य को उच्च प्राथमिकता दी जाती है। वहीं लोग वर्षों तक लक्षणों को नज़रअंदाज़ करते रहते है, जो बाद में जाकर उनके लिए बेहद खतरनाक साबित होती है।
वहीं चूल्हे से निकलने वाले धुएं के संपर्क में आने पर स्थिति और भी खराब हो जाती है।
साथ सीओपीडी की बीमारी को लेकर उनका कहना है कि इसका इलाज बिल्कूल भी मुश्किल नहीं है। कुछ बुनियादी दवाएं, सांस लेने के व्यायाम और धुएं से परहेज करने से व्यक्ति का जीवन पहले जैसा सामान्य हो सकता है, भले ही बीमारी का इलाज हो लेकिन लोगों को अपने स्वास्थय का ध्यान रखना चाहिए।
वहीं प्रदूषण पर गंभीरता दिखाते हुए फरीदाबाद के अमृता अस्पताल के पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के सलाहकार डॉ. सौरभ पाहूजा का कहना है कि
फरीदाबाद दिल्ली-एनसीआर का सबसे बड़ा औद्योगिक शहर है। शहर में औद्योगिक गतिविधियों से होने वाले प्रदूषण के सीधे संपर्क में आने से भी लोगों में फेफड़ों का स्वास्थ्य खराब हो रहा है। वहीं उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों में खराब फेफडों के लक्षण देखने को मिल रहे है। धातु और पत्थर से निकलने वाली धूल से व्यावसायिक फेफड़ों की बीमारियां होती हैं।
इनसे होने वाली बीमारियों की बात की जाएं तो वो है एस्बेस्टोसिस और सिलिकोसिस।
चलिएं आपको दोनो टर्मस के बारें में बताते है।
एस्बेस्टोसिस – यह बीमारी फेफ़डों से जुड़ी एक बीमारी है जो आमतौर पर उन व्यक्तियों को होती है जो अभ्रक उत्पादन का काम करते हैं या अभ्रक युक्त उत्पादों का उपयोग करते हैं। इसका सीधा असर फेफड़ो पर पड़ता है, बतादें कि इसे फेफड़ों की व्यावसायिक बीमारी माना जाता है।
सिलिकोसिस- सिलिकोसिस फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी होती ह जो सलिका के सूक्ष्म धूलकणों का सांस के साथ शरीर अंदर जाने के कारण होती है सिलिका बालू, चट्टान और क्वार्ट्ज जैसे खनिज अयस्क का प्रमुख घटक है। जो लोग सैंड ब्लास्टिंग, खनन उद्योग, विनिर्माण आदि क्षेत्र में काम करते है, उन्हें सिलिकोसिस से ग्रस्त होने का जोखिम रहता है।
साथ ही पाहूजा का कहना है कि फरीदाबाद अरावली रेंज में आता है, यहां आए दिन स्टोन-क्रशिंग और स्टोन-कटिंग का काम चलता रहता है। साथ ही सुरक्षा के कोई इंत्जाम नही है। सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी के कारण यहां काम करने वाले मजदूर उसी प्रदूषित हवा में सांस लेते है जो पत्थर की क्रशिंग करते वक्त पैदा होती है। वहीं उन्होंने कहा कि फैक्ट्रियों और स्टोन क्रशर से कई लोग हमारे पास आ रहे हैं, जो कार्यस्थल पर प्रदूषकों के लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण फेफड़ों की बीमारी से ग्रसित हैं।”
प्रदूषण को लेकर डॉक्टरों का कहना है कि इसके अलावा हमारे सामने एक और चुनौती है, वो हैं ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थमा से पीड़ित बच्चों को पंप या नेब्युलाइज़र का उपयोग करने की अनुमति देना।
बतादें कि स्कूल में पढ़ने वाले दमा से पीडित बच्चों को पंप या नेब्युलाइज़र का उपयोग करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि इससे बच्चों में आजीवन आदत बनने का डर बना रहता है। इससे उससे उनका आगे का जीवन भी बाधित होता है, जैसे उनकी शादी में बाधा उत्पन्न होना। साथ ही डॉ सौरभ पाहुजा ने कहा कि
यह ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में एक गहरा सामाजिक मत है जिससे हम सबको निपटने की जरूरत है ।

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