सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित रामनवमी यज्ञ-महोत्सव में आज तीसरे दिन विभिन्न प्रांतों व विदेशों से असंख्य श्रद्धालुओं का आना जारी रहा। आज हवन आयोजन के उपरांत सत्संग में सजनों को सम्बोधित करते हुए श्री सजन जी ने कहा कि आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है क्योंकि हकीकत में जीव, जगत और ब्रह्म का खेल जना यही हृदय को आनन्द देने वाला है और इसी द्वारा जीव परमपद यानि मुक्ति पा सकता है। अत: इस महत्ता के दृष्टिगत आत्मज्ञान को अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानो और साथ ही यह भी जानो कि यह उपलब्धि विधिवत् गहन आत्मनिरीक्षण के अभाव में असंभव है। अन्य शब्दों में आत्मनिरीक्षण को आत्मज्ञान का प्रथम सोपान समझो। आत्मनिरीक्षण से यहाँ तात्पर्य अपने भावों, वृत्तियों, गलतियों, त्रुटियों, दुर्बलताओं, गुण-दोषों को सही-सही जान-समझ कर, अपनी अच्छाईयों-बुराइयों पर विचार करने से है। इसी क्रिया द्वारा हम अपने व्यवहार, प्रवृत्तियों, अपनी योग्यताओं-अयोग्यताओं, अभिप्रेरणाओं आदि को स्वयं ही समझने का प्रयत्न कर सकते हैं और अपने दोषों का सूक्ष्म अवलोकन कर उनको दूर करने की दिशा में सक्रिय हो सकते हैं यानि आत्मनियन्त्रण द्वारा वांछित सुधार कर आत्मविश्वासी व आत्मनिर्भर बन सकते हैं। नि:संदेह ऐसा करने पर ही हम अपने आत्मिक बल के भरपूर प्रयोग द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को पूरी तरह से वश में रखते हुए, अंतर्निहित मानवीय गुणों में वृद्धि कर सकते है और मानवीयता को पुष्ट कर अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत यानि सुधार कर संशोधित कर श्रेष्ठ मानव बन सकते हैं।
इस प्रकार श्री सजन जी ने सजनों को समझाया कि आत्मज्ञान चारित्रिक उपलब्धि है। यही नहीं यह सतत् आत्मनिरीक्षण व आत्मनियंत्रण द्वारा अपने आचार-विचारों व चारित्रिक स्वरूप का निरंतर परिशोधन यानि सुधार करने का अचूक साधन है। अत: सत्संग द्वारा शब्द ब्रह्म विचार पकड़, सांसारिक आसक्ति का परित्याग करो और आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने आप को पूर्ण रूप से जानो व तदनुरूप अपने चरित्र को सुधार कर, श्रेष्ठता के प्रतीक बन जाओ और यश कमाओ।
याद रखो यह ज्ञान, आत्मा और उससे भी बढ़कर परमात्मा का ज्ञान है। दूसरे शब्दों में यह जीवात्मा- परमात्मा के विषय में सम्यक् ज्ञान है। इस सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करने वाला आत्मज्ञानी सोते हुए भी सदा जाग्रत रहता है यानि आत्मसत्ता के प्रति विश्वास रखते हुए हर कार्य विवेकपूर्ण करता है। इस तरह वह संतोष-धैर्य अपनाकर आप तो सत्य-धर्म के विचारयुक्त सवलड़े रास्ते पर निष्कामता से चलता ही है, साथ ही औरों को भी सद्मार्ग पर प्रशस्त करने का परोपकार कमा, ब्रह्म नाल ब्रह्म हो जाता है। यही नहीं वह सभी चराचर प्राणियों के प्रति समभाव रखता है और समदृष्टि से सबके साथ सजनता का व्यवहार करता है और इस प्रकार सबका प्रिय बन जाता है।
इसके विपरीत अविवेकी व्यक्ति आत्मज्ञान का लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाता है और आत्मसत्ता के प्रति विश्वास न रख पाने के कारण अविचारयुक्त कवलड़े रास्ते पर चलता है। इसी वजह से सजनों प्रसन्नचित्तता के स्थान पर झुखना-रोना उसके स्वभाव के अंतर्गत हो जाता है और वह कभी सुखी नहीं हो पाता। इस संदर्भ में उन्होनें आगे कहा कि यह इन्सानी चोला प्राप्त कर, हम इस परम उपलब्धि से वंचित रह जाएँ और यह अनमोल जीवन हार बैठें, यह हमें शोभा नहीं देता। अत: सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ में वर्णित अध्यात्मिक विषयों यथा सर्वव्यापी आत्मतत्व/चैतन्य/ब्रह्म/परमेश्वर आदि का मनन एवं चिंतन कर, अक्षर ब्रह्म यानि अपने अविनाशी आत्मतत्त्व को जानो। इससे श्रेष्ठ अक्षर अव्यय ब्रह्म व उससे परे परब्रह्म का मर्म तो स्पष्ट होगा ही साथ ही अपने ‘स्व-भाव‘ (क्षर विराट् विश्व) का रहस्य तथा उसकी कार्यप्रणाली भी स्पष्ट होगी। इस तरह आपके लिए ‘ईश्वर है अपना आप‘ इस विचार पर सुदृढ़ बने रह, इस जगत में अपने समस्त कर्त्तव्यों का संपादन निर्लिप्तता से करते हुए अकर्त्ता भाव में अडिग बने रहना सहज हो जाएगा। जानो यह एक सत्-वादी इंसान की तरह सर्गुण-निर्गुण सम कर जान विचार, एक दृष्टि, एकता और एक अवस्था में बने रहने की शुभ बात होगी।
अंत में श्री सजन जी ने कहा कि मनुष्य चाहे कितनी भी भौतिक उन्नति करे तथा अनेक उपलब्धियों से व्यवहार में सम्मानित हो किंतु जब तक वह अपनी आत्मा को निजी शुद्ध चैतन्य के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता तब तक वह अपने आप को अपूर्ण, बेचैन और अतृप्त सा महसूस करता है। उसे पूर्ण तृप्त तथा परमानन्द से सराबोर करने की क्षमता केवल आत्मज्ञान व तत्पश्चात् होने वाले आत्मबोध में ही निहित होती है। इसी से उसके व्यक्तित्व का जागरण होता है और वह भौतिक धरातल यानि जागतिक परिधि से ऊपर उठकर, आत्मिक यानि आध्यात्मिक बोध कर पाता है। इस महत्ता के दृष्टिगत श्री सजन जी ने सबसे बालावस्था से ही आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की विनती की और कहा कि जानों इसी में आपके मानव जन्म की सच्ची सार्थकता निहित है।