फरीदाबाद(विनोद वैष्णव )। भोपानी लालपुर रोड पर स्थित विशाल परिसर ‘वसुन्धरा’ सतयुग दर्शन संगीत कला केन्द्र ने दिनांक २४ अप्रेल को “शास्त्रीय संगीत बैठक का आयोजन किया।जिसमें बनारस घराने के विश्व विख्यात बांसुरी वादक पण्डित अजय प्रसन्ना जो कि 3 बार ग्रैमी अवार्ड के लिए नोमिनेट हो चुके हैं साथ ही तबले पर संगत के लिए रेडियो एवम दूरदर्शन कलाकार पन्डित प्रदीप सरकार ने सबका मन मोह लिया।कार्यक्रम का शुभारम्भ सतयुग दर्शन ट्रस्ट के मार्गदर्शक सजन , मैनेजिंग ट्रस्टी रेशमा गांधी एवम चेयरपर्सन
अनुपमा तलवार ने सभी अतिथियों के साथ दीप प्रज्ज्वलन कर किया।
कार्यक्रम के शुभारम्भ में
सतयुग दर्शन संगीत कला केन्द्र के विद्यार्थियों द्वारा राग
वृन्दावनी सारंग पर आधारित स्वागत गीत प्रस्तुत किया गया। संगीत कला केन्द्र के अध्यापक व अध्यापिकाओं ने कत्थक, भरत नाट्यम व गायन में अपने अपने कार्यक्रम प्रस्तुत कर सभी का मन मोह लिया।इस अवसर पर सतयुग दर्शन संगीत कला केन्द्र की चेयरपर्सन अनुपमा तलवार, जो कि स्वयं भी एक उच्च कोटि की गायिका एवं नृत्यांगना हैं, ने बताया यह संगीत कला केन्द्र वसुन्धरा, फरीदाबाद के अतिरिक्त गुड़गाँव, जालन्धर शहर, अम्बाला कैन्ट, सहारनपुर, पानीपत, रोहतक, दिल्ली, लुधियाना इत्यादि में भी हैं ।साथ ही यह भी बताया कि संगीत कला केन्द्र प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद, जो कि सन् 1926 से संगीत शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत देश की सबसे प्राचीन शिक्षण संस्था है, से मान्यता प्राप्त है। सतयुग दर्शन संगीत कला केन्द्र में प्रयाग संगीत समिति के प्रवेशिका कोर्स से लेकर संगीत प्रभाकर डिग्री कोर्स के लिए शिक्षण व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध है।
यहाँ संगीत की तीनों विधाओं अर्थात् गायन, वादन व नृत्य में शिक्षा प्रदान की जाती है। शिक्षण के लिए प्रशिक्षित अध्यापक हैं।
कार्यक्रम में पधारे सतयुग दर्शन ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने कहा कि सर्वप्रथम हम यह बताना चाहेंगें कि संगीत-विद्या का प्रयोग आदिकाल अर्थात् वैदिक काल से ही सुदृढ संस्कृति स्थापना हेतु किया जाता रहा है। यह पद्धति मानवता संविधान के अनुकूल हर सजन के मन, रूचि, आचार-विचार, कला-कौशल को युक्तिसंगत निपुणता प्रदान कर हर समयकाल में सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक रही है क्योंकि तत्कालिन संगीत लय, ताल, नृत्य आदि सब में चेतना/मन को जाग्रत करने की अद्भुत क्षमता थी जो मनुष्य की मानसिक स्थिति को सम में सुदृढ रखती थी।
कहने का तात्पर्य यह है कि तब का संगीत दिव्य मार्ग प्रशस्त करने का अर्थात् परमानन्द तक पहुँचाने का सर्वश्रेष्ठ साधन था तथा शाश्वत ध्वनि से उत्पन्न हुआ माना
जाता था। वह अखण्ड और अटूट था तथा सभी संगीत को जीवन में स्पंदन रूप से चेतना का प्रतीक मानते थे। अर्थात् संगीत प्रणव-वाचक, ओ३म रूपी नाद ब्रह्म कहलाता था। तभी इस कला को उस काल में सब आत्म-मार्ग का सर्वोच्च निर्देशक मानते थे और यह हृदय को निर्मल बनाने व मानव स्वास्थ्य की रक्षा करने के साधन के रूप में जाना जाता था। संक्षेपतः हम कह सकते हैं कि वह संगीत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का प्रदायक भी था और स्वर समाधि द्वारा ब्रह्मलीन होने का माध्यम भी।
हम सबको व समस्त संगीतज्ञयों व विद्वानों को एक मूकदृष्टा की भांति मानवता को पतनता की तरफ जाते हुए नहीं देखना चाहिए अपितु अपनी