फरीदाबाद(विनोद वैष्णव ) ।सतयुग दर्शन ट्रस्ट का वार्षिक रामनवमी यज्ञ महोत्सव, आज भूपानी स्थित सतयुग दर्शन वसुंधरा पर प्रात: 8.00 बजे सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ व रामायण के अखंड पाठ के साथ आरंभ हुआ। आरम्भिक विधि के उपरांत सजनों को सत्संग के दौरान ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने बड़े ही उत्कृष्ट व सुन्दर ढंग से कहा कि सम्पूर्ण विश्वब्रह्ममय है अथवा ब्रह्म-निर्मित है और उसी की शक्ति से चल रहा है। इस आशय से प्रणव ही अपने आप में वह ब्रह्म बीज है जिससे यह सारा ब्रह्माण्डउत्पन्न होता है व जिसमें अंत उसका विलय हो जाता है। अत: इस अनादि सत्य को दृष्टिगत रखते हुए शब्द ब्रह्म यानि मूलमंत्र आद् अक्षर ॐ के अजपा जाप द्वारा, ख़्याल ध्यान वल व ध्यान प्रकाश वल जोड़, मन-मंदिर प्रकाश रही, ज्योतिमर्य ब्रह्म सत्ता को तन्मयता से ग्रहण करो क्योंकि सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ कह रहा है:-
एक दा करो अजपा जाप, फिर ब्रह्म शब्द दा पाओ प्रकाश, एहो सजनों पकड़ो इतिहास, फिर ब्रह्म स्वरूप है अपना आप
आशय यह है कि उठते-बैठते, सोते-जागते, हर वस्तु में उसी आत्मप्रकाश के होने का एहसास करो। इस तरह अन्दर विचरो, बाहर विचरो, घर में हों या बाज़ार में, मन-मन्दिर देखो या जग अन्दर, परिवार वाले देखो या रेहड़ी वाले, बाल-वृद्ध, गरीब-अमीर जो सजन भी आगे आवे, उसको ब्रह्म यानि भगवान का रूप ही समझो और प्रसन्न होवो अर्थात् मन ही मन यह विचार कर हर्षाओ कि हे प्रभु ! तेरे खेल कितने निराले हैं। कितने रूपों में कितनी तरह का खेल, खेल रहे हो और खेल खेलते हुए भी उससे निर्लेप हो। इस तरह जगत के सब दृश्य देखते हुए अपने मन में किसी अन्य प्रकार का भाव पैदा करने के स्थान पर, ब्रह्म भाव का विकास कर हर्षाओ व समभाव-समदृष्टि हो जाओ। ऐसा पुरूषार्थ करने पर स्वयंमेव “जो प्रकाश मन-मन्दिर में देखा है, वही प्रकाश सारे जग में दिखाई देगा” और आप सर्व-सर्व अपने ही प्रकाश का अनुभव कर जान जाओगे कि चाहे वस्तुओं के नाम व रूप अनेक हैं, पर उनमें एक ही शक्ति/ब्रह्म सत्ता व्याप्त है और वही मेरा असलियत ब्रह्म स्वरूप यानि अपना आप है। अन्य शब्दों में परब्रह्मपरमेश्वरकी नित्य ब्रह्म शक्ति ने ही, हर अनित्य वस्तु को धारण किया हुआ है और चहुं ओर विभिन्न रूप, रंगों में वही ब्रह्म स्वरूप ही निगाह आ रहा है। सर्व-सर्व ऐसा भासित होने पर अपने ज्योतिर्मय आत्मस्वरूप का सहज ही बोध कर सतवस्तु के कुदरती के अनुसार कह उठोगे:-
ब्रह्म स्वरूप है जे प्रकाश जेहड़ा, ब्रह्म स्वरूप है जे नाम मेरा, हर जनों में ओ प्रकाशे, ज्योति स्वरूप अपना आप ही जापे
फिर उन्होने कहा कि सजनों जब यह आद् सत्य जान लिया कि सर्व-सर्व वही ब्रह्म ही ब्रह्म है तो फिर समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसार हर हालत में एकरस बने रहते हुए, ब्रह्म भाव अनुसार निर्लिप्तता से स्वतन्त्र जीवन जीना व परस्पर सजन भाव का शास्त्रविहित् युक्ति अनुसार व्यवहार करना सहज हो जाएगा और आप कह उठोगे “ब्रह्म स्वरूप है अपना आप, हम तो हैं ओही प्रकाश”। उन्होने सजनों कि समझाया कि इस महत्ता के दृष्टिगत ही सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ कह रहा है:-
“जो प्रकाश या स्वरूप मैंने अपने मन मन्दिर में देखा है, जिस स्वरूप के साथ प्यार है (श्री राम, रहीम, श्री कृष्ण करीम या दस पातशाह जी के साथ) वही स्वरूप मेरा बाहर हर एक में है और वही मेरी असलियत है। यह सारा प्रतिबिम्ब मेरा ही है। इसी प्रतिबिम्ब को हर एक में देखना है क्योंकि जनचर बनचर में वही है, जड़ चेतन में उसी का प्रकाश है। यही असलियत मेरा ब्रह्म स्वरूप है। श्री सजन जी ने कहा कि हम मानते हैं कि आपने इस बात को यथा अपनी वृत्ति-स्मृति में उतार कर धारण कर लिया होगा। उन्होंने फिर कहा कि जानो ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक हैं क्योंकि सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ कह रहा है:-“वृत्ति है जे एहो कमाल वृत्ति है जे एहो विशाल, एहो कोई मुश्किल फड़दा विरला कोई धारण करदा, जेहड़ा देखो सजनों मन मन्दिर प्रकाश ओही ब्रह्म स्वरूप है अपना आप।“
अत: सजनों इस ब्रह्म वृत्ति पर ठीक वैसे ही खड़े हो जाओ जैसे अर्जुन हुआ था। जानो तभी एक आत्मतुष्ट, धीर, जितेन्द्रिय समवृत्ति इंसान की तरह, अपने यथार्थ का बोध रखते हुए अर्थात् सदा चेतनता से अपने अविनाशी नित्य ब्रह्म स्वरूप में बने रहते हुए, इस ब्रह्ममय ब्रह्माण्डमें निष्काम भाव से निषंग विचर पाओगे और सत्यनिष्ठ व धर्मज्ञ इंसान कहलाओगे। ऐसे श्रेष्ठता के प्रतीक बनने पर सहज ही परोपकार कमाते हुए ब्रह्मज्ञानी नाम कहाओगे।