सतयुग दर्शन वसुन्धरा में परमपद प्राप्ति हेतु आत्मज्ञान की महत्ता

( विनोद वैष्णव ) |सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित राम नवमी यज्ञ महोत्सव के द्वितीय दिवस  सजन जी ने कहा कि अंत:करण/हृदय आकाश की शुचिता के लिए आत्मज्ञान एकमात्र सर्वोत्तम साधन है। आत्मज्ञान से तात्पर्य अपने को पूर्ण रूप से जानने/पहचाने से है। अपने आप से यहाँ आशय सजनों आत्म (स्व) की पहचान वस्तुत: आत्मा/परमात्मा की पहचान से है। इसे आत्मा का स्वरूप ज्ञान या ब्रह्म का ज्ञान यानि आध्यात्मिक ज्ञान भी कहते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार व ब्रह्म-साक्षात्कार की स्थिति है। इसी विषय में और स्पष्टता देते हुए उन्होंने कहा कि आत्मा ब्रह्म है तो परमात्मा परब्रह्म है। ब्रह्म से यहाँ तात्पर्य उस सब में बड़ी, परम तथा नित्य चेतनसत्ता से है जो जगत का मूल कारण और सत् -चित-आनंदस्वरूप मानी गई है तथा परब्रह्म से तात्पर्य उस निर्गुण और निरुपाधि ब्रह्म से है जो जगत से परे है। याद रखो जो उस सूक्ष्मतम आद् स्रोत के साथ जुड़, आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और तद्नुकूल ब्रह्म भाव/सर्व एकात्मा का भाव अपना लेता है वह एकता, एक अवस्था में आ परमात्मा के साथ परमात्मा हो जाता है।आगे  सजन जी ने आत्मज्ञान को और स्पष्ट करते हुए बताया कि आत्मज्ञान, सामान्य ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। यह बुद्धि की प्रखरता का नहीं अपितु माया के स्पर्श से दूर आत्मा की निष्कलुषता यानि पावनता का प्रतिबिमब है। यह आत्मा की पुकार है जिसको सुनकर व्यक्ति सन्मार्ग पर चलने के लिए स्वत: प्रेरित होता है और जीवात्मा/परमात्मा के विषय में समयक् ज्ञान प्राप्त कर सदा जाग्रत अवस्था में बना रहता है यानि आत्मसत्ता के प्रति विश्वास रखते हुए हर कार्य विवेकपूर्ण करता है। उन्होंने कहा कि इस उपल4िध के दृष्टिगत आत्मज्ञान प्राप्ति को महत्व दो और सर्वव्याप्त एकात्मा को जानो 1योंकि जो आत्मा को यानि स्वयं को जान जाता है वह उस ब्रह्म (ईश्वर) को यानि सबको पहचान लेता है। इस संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रह्म ही पूर्ण है अत: उसका ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है। जिस व्यक्ति को इस आत्मतत्व का पूर्णत: ज्ञान हो जाता है वह शीघ्र ही उच्च शिखर (सिद्धि) पर चढ़ जाता है। इंद्रियों के विषय फिर उसे विषतुल्य लगने लगते हैं यानि बाह्य पदार्थों के प्रति उसमें अरूचि उत्पन्न हो जाती है और संसार मिथ्या प्रतीत होने लगता है। इस तरह मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विषय-विकारों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है और इनके स्थान पर जीवन में संतोष, क्षमा, धैर्य, विनय, शील, सरलता, स्पष्टता, समता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। फलत: जीवन निखर जाता है और व्यक्ति शोक, लोभ, मायाबंधन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानंद स्वरूप हो जाता है और अफुर हो परमपद को प्राप्त कर मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। अन्य श4दों में जब मनुष्य राग और भोग में रूचिशील जीवन जीने के स्थान पर, वैराग्य और त्याग में प्रवृत्त होकर, आत्मा और परमात्मा के स्वरूप और समबन्ध का विचार कर, लौकिक और भौतिक साधनों से भिन्न, आध्यात्मिक उन्नति के साधनों के समबन्ध में अपने मन में विवेचन करता है तो आत्मा और अनात्मा के विवेक ज्ञान द्वारा आध्यासिक/मिथ्याज्ञान से उत्पन्न भ्रमपूर्ण और कल्पित ज्ञान से मुक्ति पा, जीवात्मा और परमात्मा के विषय का समयक् ज्ञान प्राप्त कर, ब्रह्मसाक्षात्कार कर सकता है। इस तरह इस ज्ञान को आत्मसात् करने वाला जीव जीवनमुक्त हो, ब्रह्मभूत हो जाता है। उन्होंने कहा कि इस उद्देश्य पूर्ति्त हेतु सजनों वेद-शास्त्रों में वर्णित अध्यात्मिक विषयों यथा सर्वव्यापी आत्मतत्व/चैतन्य/ब्रह्म/परमेश्वर आदि का मनन एवं चिंतन कर, अक्षर ब्रह्म यानि अपने अविनाशी आत्मतत्व को जानो। इससे श्रेष्ठ अक्षर अव्यय ब्रह्म व उससे परे परब्रह्म का मर्म तो स्पष्ट होगा ही साथ ही अपने च्च्स्व-भावज्ज् (क्षर विराट् विश्व) का रहस्य तथा उसकी कार्यप्रणाली भी स्पष्ट होगी। इस तरह आपके लिए सतत् आत्मनिरीक्षण व आत्मनियंत्रण द्वारा अपने आचार-विचारों व चारित्रिक स्वरूप का निरंतर परिशोधन करते हुए च्च्ईश्वर है अपना आपज्ज् इस विचार पर सुदृढ़ बने रह, इस जगत में अपने समस्त कर्तव्यों का संपादन निर्लिप्तता से करते हुए अकत्र्ता भाव में अडिग बने रहना सहज हो जाएगा और आप आत्मा यानि शुद्ध चैतन्य यानि परम तत्तव का साक्षात्कार कर अपना जीवन सफल बनाने में कामयाब हो जाओगे।

संस्था की प्रबन्धक न्यासी श्रीमती रेशमा गांधी ने बताया कि इस महोत्सव में वसुंधरा के प्रांगण में दिन-रात श्रद्धालुओं का आगमन जारी है। भक्तजनों के रहने, खाने-पीने की समुचित व्यवस्था परिसर में ही की गयी है। श्रीमती रेशमा गाँधी ने बताया कि वे स्वयं समस्त आयोजन पर नजर रखे हुए हैं ताकि किसी भक्तजन को असुविधा का सामना न करना पड़े।

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