फरीदाबाद ( विनोद वैष्णव )| जैसा कि आप सबको ज्ञात ही है कि विगत कुछ माह से इतने बड़े पैमाने पर मानवता-ई-ओलमिपयाड करवाने व समाज को नैतिक उत्थान की राह दिखा कर एक नेक व अच्छा इंसान बनाने के संदर्भ में सतयुग दर्शन ट्रस्ट, फरीदाबाद, की मानवता उत्थान समबन्धित गतिविधियाँ काफी चर्चित रही है। हाल में ही विश्व समभाव दिवस के शुभ अवसर पर समपन्न किए गए मानवता-ई-ओलमिपयाड के पुरस्कार वितरण समारोह के अवसर पर हमें भी ट्रस्ट के मार्गदर्शक सजन जी से भेट करने का अवसर प्राप्त हुआ और हमने भी मानवीय मूल्यों से भरपूर व स्वर्णिम भविष्य की राह दिखाते, अति ही सुन्दर कार्यक्रम को देखकर जिज्ञासा वश उनसे पूछा कि आखिर आप सबका गुरु कौन है?
यह सुनकर श्री सजन जी ने कहा कि यहाँ कोई भी शारीरिक गुरु नहीं है अपितु श4द ही हमारा गुरु है। यह सतयुग दर्शन ट्रस्ट, हकीकत में महाबीर सत्संग सभा का एक विस्तारित रूपान्तरण है। इस नाते यह द्वारा सजन श्री शहनशाह महाबीर जी का द्वारा है जो सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ में कहते हैं कि च्च्श4द है गुरु, शरीर नहीं है | यहाँ मूलमंत्र को स्पष्ट करते हुए उन्होने कहा कि यह है प्रणव-मंत्र ओ3म् जिसे हिन्दी में अक्षर/ब्राहृबीज, उर्दू में अलिफ, गुरुमुखी में ओंकार आदि नाम से समबोधित किया जाता है तथा हर पदार्थ के अन्दरूनी (आध्यात्मिक) व बैहरूनी (भौतिक) ज्ञान के प्रकटन का रुाोत व सुरत व श4द के मिलन का व विलीन होने का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। इस संदर्भ में वह बोले कि नाम चाहे कुछ भी हो परन्तु हकीकत में यही अत्यन्त पवित्र, नित्य, स्थिर, दृढ़, अनश्वर, अविनाशी, स्वयंभू व परब्राहृवाचक यानि परमात्मा को व्यक्त, प्रकट या सूचित करने वाला श4द ही हमारा गुरु है यानि हमारा आध्यात्मिक पथप्रदर्शक है और परमानन्द की प्राप्ति हेतु दिव्यता की खिड़की खोलने की कुंजी है।
इस तरह सजन जी ने स्पष्ट किया कि सजन श्री शहनशाह महाबीर जी के वचनानुसार इस द्वारे पर हम सभी यही मानते हैं कि सार्थक ध्वनि के रूप में आत्मिक ज्ञान प्रदान करने वाला हमारा यह नित्य, अजर-अमर, गुरु ही न केवल हमारे नित्य असलियत स्वरूप की पहचान कराने में अपितु उस ब्राहृ और इस ब्राहृांड का हर रहस्य जनाने में पूर्ण सक्षम है तथा एकमात्र ऐसा रुाोत है जो सर्व को एक सूत्र में बाँध, सबके मन-मस्तिष्क को एक ही तरह के आत्मिक ज्ञान के प्रवाह से भरपूर कर, सर्व कला समपूर्ण बना सकता है। इसके अजपा जाप के प्रवाह से ही तेरी-मेरी, अपना-पराया, भिन्न-भेद, वैर-विरोध, वड-छोट, सेवक-स्वामी, भक्त-भगवान, गुरु-चेले का द्वैत युक्त भाव समाप्त हो सकता है और समस्त बाह्र आडंमबर व कर्मकांडयुक्त भक्ति भावों का अंत हो समभाव यानि ऐ1य भाव आ जाता है। इस प्रकार अपनी स्वतन्त्र मुक्त प्रकृति में बने रह हमारा आचार, विचार व व्यवहार सत्य-ज्ञान की मर्यादा में सदैव सधा रह सकता है और हम सजन-भाव और गृहस्थ धर्म के वचनों पर परिपक्वता से खड़े होकर इस जगत में अपना फज़ऱ्-अदा निर्लिप्तता से संकल्प रहित होकर, हँसकर निभा सकते हैं। इस तथ्य के दृष्टिगत श्री सजन जी ने कहा कि ईश्वर के इस मूल सिद्धान्त को हम अपने जीवन के मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में स्वीकारते हैं अर्थात् हमारा उद्देश्य, ख़्याल, नीयत, विचार-प्रक्रिया, तर्कशक्ति, गंभीरता व सावधानी पूर्वक किया चिंतन, विचार-विमर्श, दृढ़ निश्चय, ध्यान इत्यादि सब इसी श4द ब्राहृ पर आधारित होता है और इसीलिए यहाँ सतयुगी चलन के अनुरूप समभाव-समदृष्टि अपनाने को प्रधानता दी जाती है तथा सजन-भाव यानि मैत्री-भाव अनुरूप व्यवहार करने पर जोर दिया जाता है।
आगे हमारे यह पूछने पर कि वर्तमान युग में प्रचलित भक्ति भावों के अनुरूप आप किसी शरीरधारी को गुरु 1यों नही मानते श्री सजन जी हँस कर बोले कि किसी शरीरधारी को गुरु मानने का अर्थ है आत्मतत्व से नाता तोड़ मिथ्या तत्वों से समबन्ध जोड़ आध्यात्मिकता के मार्ग से भटक जाना अर्थात् अज्ञानियों की तरह सांसारिक स्वार्थपूर्ण अन्तहीन इच्छाओं की ओर आकर्षित हो मृतलोक में आवागमन के दुष्चक्र में तब तक फँसे रहना जब तक कि अंतिम इच्छा पूर्ण न हो जाए। इसलिए हम यह भूल नहीं करते और सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ अनुसार यह मानते हैं कि :-
गुरू है बन्धन ते चेला है बन्धन, ओ बन्धन है जे पख परिवार ।
इस बन्धन तों छुटना चाहो सजनों श4द पकड़ो ब्राहृ विचार।।
इस आधार पर हम श4द को ही ब्राहृ मान, निष्कामता से उसी में अपने मन को लीन रखते हैं और उस द्वारा प्रदत्त ब्राहृ विचारों को धारण कर, अपने मन-वचन-कर्म द्वारा उन्ही का ही इस्तेमाल करने में अपनी शान समझते हैं। इससे बिना किसी प्रयत्न के स्वयंमेव हमारा मन संतोषमय यानि आत्मतुष्ट बना रहता है और हम जीवन की हर परिस्थिति का सामना डट कर निर्भयता से करने के लिए तत्पर रहते हैं यानि कभी कोई कमी हमें नहीं खलती। कमी नहीं खलती तो मिथ्या संसार के नकारात्मक भावों की गंदगी हमारे ख़्याल को छू नहीं पाती यानि विकार-वृत्तियाँ व गरूरी-मगरूरी नहीं पनप पाती और हम बाह्र उत्तेजनाओं से मुक्त हो अपने मन को धीरता से अपने जीवन के महान प्रयोजन को समयबद्ध पूरा करने के प्रति स्थिरता से साधे रख पाते हैं। यही कारण है कि सत्य को धारण कर धर्म के मार्ग पर चलना हमें कठिन प्रतीत नहीं होता और हम निष्कामता से परोपकार कमाते हुए मौत के भय से मुक्त हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि यही इस द्वारे की नीति है और इसी नीति पर हर इंसान को मानव धर्म अपनाकर यानि इंसानियत में आकर डटे रहने के लिए तैयार किया जाता है।
अंत में श्री सजन जी ने हमारे जरिए भी आप सब अखबार पढऩे वाले सजनों तक भी यही अपील की च्च्श4द है गुरू, शरीर नहीं हैज्ज् के तथ्य व सत्य को समझने के पश्चात् आप सब भी ज्ञानी को नहीं, ज्ञान को अपनाओ यानि निमित्त में नहीं अपितु नित्य में श्रद्धा बढ़ाओ। इस तरह दृढ़ विश्वास के साथ श4द गुरु से अपना नाता जोड़ श्रद्धापूर्वक, उससे प्राप्त होने वाले सत्य आत्मिक ज्ञान के प्रति आस्था रखते हुए, उन का इस्तेमाल कर आत्मबोध करो और ए विध् यह मनुष्य जीवन सुख-शान्ति से व्यतीत करते हुए उस परमसत्य, अविनाशी ईश्वर के हो जाओ। इन्ही शुभकामनाओं के साथ।