ध्यान-कक्ष – आत्मबोध कर पूर्ण शांति व अखंड संतोष को प्राप्त करो

ध्यान कक्ष में उपस्थित सजनों को आज समझाया गया कि इस संसार में सबसे बड़ा कार्य है इच्छाओं का शमन करना अर्थात्‌ संकल्प रहित होना जिसके लिए आवश्यकता है इन्द्रिय निग्रह की। इन्द्रियों की प्रवृत्ति विषयों की ओर न हो, यही अवस्था परिशमन की है जिसके लिए आवश्यकता है अपने आप को जानने की व पहचानने की कि मैं यथार्थ में कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्या करने आया हूँ और इस कारण शरीर को धारण करने के उपरांत, किस बात का विचार एवं ध्यान रखते हुए मुझे अपने जीवन का परम प्रयोजन सिद्ध करना है? कहने का आशय यह है कि जब अंत:स्थित परमेश्वर पर आस्था रखते हुए, निरंतर अभ्यास, वैराग्य और जागरूकता के साथ, आत्म यथार्थ (आत्मा) की खोज की जाती है तो इंसान सहज ही आत्मज्ञान के प्रकाश में, तटस्थ और साक्षी भाव से मार्ग अवरोधक इच्छाओं को पढ़ते हुए, उनकी व्यर्थता व निरर्थकता का बोध कर, उनसे मुक्ति पाने का प्रयास करता है। इस प्रयास के अंतर्गत, वह उन इच्छाओं की प्रकृति, गति और नियति को जानता है तथा उनकी निस्सारता पर विचार करते हुए, उन्हें सहलाने, पोषणे और आहुति देकर प्रज्ज्वलित करने यानि पूरा करने की बजाय, दुत्कारते हुए, मन के क्षितिज से बाहर निकाल फैंकता है। इस तरह वह उन इच्छाओं के कारण, अपने मन में पनपे दोषों, विकारों, उपद्रवों और स्वार्थपरता आदि का शमन कर, अपने अंत:करण व भाव-स्वभावों का शोधन करता है और राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, अहंकार जैसे शत्रुओ का नाश कर, संकल्प कुसंगी पर विजय प्राप्त कर लेता है। नि:संदेह सजनों आरंभ में इच्छाएँ अनंत होती है परन्तु अंततोगत्वा एक परमात्म प्राप्ति की इच्छा रह जाती है और आत्मबोध होने पर जब यह इच्छा भी शमित यानि विलय हो जाती है तब बंधनमान जीव स्वतन्त्र हो जाता है और उसे पूर्ण शांति व अखंड संतोष प्राप्त होता है। इस प्रकार सजनों इस महान उपलब्धि को प्राप्त कर जो कामनाओं से रहित हो, आत्मेश्वर में स्थित हो जाता है, उसका फिर कभी पतन नहीं होता अपितु वह तो ब्रह्म नाल ब्रह्म हो, चित्त की अखंड प्रसन्नता को प्राप्त कर, सत्‌-चित्त-आनन्द स्वरूप में लीन हो जाता है यानि अपने सच्चे घर में स्थित हो सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ के अनुसार कह उठता है:-
सच्चे घर दे अन्दर जाऊँ ओय, ओथे लख लख खुशियां मनाऊं ओय।
जगे जोत दूसरी वस्तु न कोई ओय, ओथे जोत ही जोत नज़र आई ओय।
ओथे जोत ही जोत नज़र आई ओय, जैंदी त्रिलोकी दे विच रौशनाई ओय।

आप भी सजनों इस आनन्द स्वरूप में स्थित होने हेतु समभाव समदृष्टि की युक्ति का अनुशीलन करते हुए आत्म यथार्थ का बोध करो और आत्मज्ञान के प्रकाश में, साक्षी भाव से मार्ग अवरोधक इच्छाओं को पढ़ते हुए, उनकी व्यर्थता व निरर्थकता का बोध कर, उनसे मुक्ति पाने के प्रयास में सफल हो जाओ।
जानो इसी कारज की सिद्धि के लिए यह ध्यान-कक्ष यानि समभाव समदृष्टि का स्कूल खोला गया है व इसमें आने वालों को सतयुगी आचार संहिता से परिचित करा तद्‌नुकूल ढ़लने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। आप चाहे तो आप भी इस स्कूल में आ सकते हैं और उचित मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं।

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