सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित राम नवमी यज्ञ महोत्सव

फरीदाबाद (विनोद वैष्णव) : सतयुग दर्शन वसुन्धरा में आयोजित रामनवमी यज्ञ-महोत्सव में आज चतुर्थ दिन विभिन्न प्रांतों व विदेशों से असंख्य श्रद्धालुओं का आना जारी रहा। आज हवन आयोजन के उपरांत सत्संग में सजनों को सम्बोधित करते हुए सजन जी ने कहा आत्मबोध मोक्ष प्राप्ति का सीधा व सरल साधन है। आत्मबोध से तात्पर्य आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर (आत्मज्ञान) अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का बोध यानि साक्षात्कार करने से है। अन्य शब्दों में समभाव समदृष्टि की युक्ति के अनुशीलन द्वारा आत्मा में निहित निज परमात्म स्वरूप परब्रह्म को जान लेना और जगत की हर शै में उसी आत्मस्वरूप के होने की प्रतीति करते हुएजीवन के समस्त कार्यव्यवहार करते हुएहर क्षणहर पलहर कृति मेंहर अवस्था मेंउसी आत्मानन्द अवस्था में बने रहना यही सच्चा आत्मबोध है।

इस संदर्भ में वर्तमान युग में प्रचलित आत्मबोध के सीमित अर्थ से परिचित कराते हुए उन्होंने कहा कि आज के समयकाल में हरेक प्राणी ‘मैं हूँ‘ इस शारीरिक भाव को अपने स्वभाव के अंतर्गत करअपना स्वसिद्ध अस्तित्व घोषित करने में लगा हुआ है। अपनी इसी स्वाभाविक स्वार्थपर मानसिक मनोवृत्ति के कारण वह  अपने अस्तित्व के स्थूल पहलू यानि शारीरिक पहचान तक ही सीमित रह गया है और मिथ्या शारीरिक शक्तिदेहिक सुन्दरताबुद्धिमत्ताभौतिक संपत्ति/उपलब्धियोंसामाजिक महत्त्व आदि की प्राप्ति पर गर्व युक्त होकर अपने को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझने लगा है। उन्होंने कहा कि चाहे सामान्य लोक व्यवहार में सजनों ऐसा व्यक्ति औपचारिक शिष्टाचार में मान-सम्मान पाता हुआसफल और सयाना गिना जाता है परन्तु हकीकत में ‘मैं‘ और ‘मेरा‘ तक सीमित उसकी इस मनोवृत्ति ने उसके यथार्थ आत्मबोध को विकृत बना दिया है यानि उसे आत्मविस्मृति हो गई है और वह अपनी सहज बुराईयों व कमियों से अपरिचित होसंकल्प कुसंगी को संगी बना उस पर फतह पाने में असक्षम हो गया है। इसी ‘हौं-मैं‘ के कारण उसका मन एकाग्रचित्त वृत्तियाँ शांत व ख़्याल अफुर नहीं हो पा रहा और वह आत्मिक ज्ञान प्राप्त करआत्मबोध के सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट स्वरूप का बोध नहीं कर पा रहा। याद रखो कि यह आज के इंसान की ऐसी अज्ञानमय अवस्था है जिसके दुष्प्रभाव से वह दुश्चरित्रता अपनाकरपरमार्थ के स्थान पर स्वार्थपरता का सिद्वान्त अपना अपना व सबका विनाश कर रहा है।

ऐसा न हो इसलिए उन्होंने कहा कि मानो आत्मबोध के सर्वोच्च एवं उत्कृष्ट स्वरूप का बोध तब होता है जब मानव समभाव समदृष्टि की युक्ति के अनुशीलन द्वारादेह और आत्मा का यथार्थ रूप जानकरस्थूल देह एवं समस्त भौतिक पदार्थों को अनित्यक्षर (नाशवान) समझने लगता है और आत्मा को उनसे सर्वथा भिन्नशाश्वत्‌ और अविनाशी यानि अ-क्षर जानता है। इस प्रकार आत्मबोध नित्य और अनित्य के विवेक से उत्पन्न ज्ञान का बोधक होता है तथा अपनी अपरोक्ष सत्ता को सच्चिदानंद परब्रह्म से अभिन्न महसूस करने से प्राप्त होता है। इसी से जीवनमुक्त हो सकता है व परमपद की प्राप्ति हो सकती है।

इस तथ्य के दृष्टिगत उन्होंने कहा कि समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसारआध्यात्मिक चिंतन यानि एकाग्रचित्त होकर अपने मन को प्रभु में लीन कर संकल्प कुसंगी पर फतह पाने के महत्त्व को समझो। ऐसा करने पर ही संसार में रहते हुए भी वैराग्य या अनासक्ति के भाव से युक्त होकरपरम पुरुषार्थ मोक्ष को परम लक्ष्य बनाकरउसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो सकोगे और यथार्थ आत्मज्ञान प्राप्त करके आत्मा के सच्चे स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव कर आत्मोन्नति कर सकोगे।

श्री सजन ने आगे कहा कि इस हेतु सर्वप्रथम अपने मन में परमपद प्राप्ति की प्रबल इच्छा जाग्रत करो। जान लो जितनी यह इच्छा प्रबल होगी उतना ही आत्मानुभूति के लिए लालायित होकर निष्कामता से परमार्थ को अपनाने की ओर प्रेरित व प्रवृत्त होंगे। यहाँ आवश्यकता होगी सत्संग व सत्‌ शास्त्र का विचार एवं मनन करने की। मत भूलो कि शुष्क शब्दबोध से यानि वेद-शास्त्रों के मात्र अध्ययन/पठन से या उनके गायन एवं सुनने मात्र से कुछ नहीं होगा अपितु उन शब्द ब्रह्म विचारों का चिंतन कर उन्हें आचार-व्यवहार में लाना होगा और इस तरह सर्व में उस अपरोक्ष आत्मा की अनुभूति करनी होगी। इस आध्यात्मिक चिंतन से अंतर्मन का कालुष्य धुल जाएगा और अंतर्मन स्वस्थ होकर आपको परमार्थ की दिशा में ले चलेगा जिससे आप संसारी यानि शारीरिक स्वभावों की तरफ से जित पा निरंतर आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति करने लगोगे। इस प्रकार जब बहिर्मुखी होने के स्थान पर अंतर्मुखी हो जाओगे तो स्वत: ही हृदय में अफुरता का वातावरण पनपेगा और आपके लिए संतोषधैर्य पर बने रह सत्य-धर्म के निष्काम रास्ते पर सुदृढ़ता से बने रहना सहज हो जाएगा।

यदि चाहते हो ऐसा ही हो तो समभाव समदृष्टि की युक्ति अनुसारहकीकत में ब्रह्म शब्द अर्थात्‌ प्रणव मंत्र को गुरू मानकरसर्वव्याप्त अपनी ब्रह्म सत्ता को युक्तिसंगत ग्रहण करो और उस द्वारा प्रदत्त आत्मज्ञान को आचरण में ला निष्कामता से सत्य धर्म के रास्ते पर चल पड़ो। यह आत्मसाक्षात्कार यानि अपने असलीयत स्वरूप की पहचान कर परमपद प्राप्त करने का सबसे सरल व सहज तरीका है। इससे स्वत: ही तीनों तापों का घटता-बढ़ता टेम्प्रेचर सम हो जाएगा और फिर समभाव समदृष्टि जो एक निगाह एक दृष्टि देखनी होती है बिना यत्न के उसकी प्राप्ति हो जाएगी। यह होगा जन्म की बाज़ी को जीत इस जगत में अपना नाम रौशन करना।

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