रामनवमी की पवित्र बेला पर आज सतयुग दर्शन वसुंधरा के प्रांगण में हवन आयोजन के उपरांत कई नवजात शिशुओं ने चोले डलवाए

फरीदाबाद ( विनोद वैष्णव ) | रामनवमी की पवित्र बेला पर आज सतयुग दर्शन वसुंधरा के प्रांगण में हवन आयोजन के उपरांत कई नवजात शिशुओं ने चोले डलवाए, उनका नामकरण हुआ व मुण्डन संस्कार सम्पन्न हुआ। आज सफ़ेद पोशाक व गुलानारी दुपट्‌टा धारे श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ थी। आज यहाँ अनमोल मानव जीवन के परमपद को समयानुसार प्राप्त कर लेने की महत्ता पर बल देते हुए ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने कहा कि हमारा वास्तविक स्वरूप विशुद्धता का प्रतीक है। इस स्वरूप का बोध करने हेतु आध्यात्मिक शिक्षा अनिवार्य है। एकमात्र आध्यात्मिक शिक्षा ही आत्मशुद्धि का अति उत्तम साधन है। आत्मशुद्धि से तात्पर्य मन और शरीर इन दोनों की पवित्रता साधने से है। अनकी पवित्रता साधने पर ही सबसे बड़ी विजय यानि आत्मविजय प्राप्त हो सकती है। अत: आप भी इस विजय को प्राप्त करने हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करो। इस संदर्भ में याद रखो कि:-

१ आत्मज्ञान सबसे उत्तम विद्या होती है जो सहजता से एक व्यक्ति को श्रेष्ठ बना देती है। तभी तो ऐसा व्यक्ति सांसारिक जीवन में उपयोगी सभी विद्याओं का ज्ञान अर्जन कर भूल कर भी उसका दुरूपयोग नहीं करता और अपने जीवन में जो भी करता है वह जनहित को ध्यान में रखते हुए करता है। स्पष्ट है कि आत्मिक ज्ञान की पढ़ाई के अंतर्गत भौतिक पढ़ाई करना वर्जित नहीं है अपितु इसके ज्ञान के द्वारा भौतिकता व अध्यात्मिकता के मध्य संतुलन कायम रखा जाता है ताकि हम अपनी नैतिक अवस्था से गिर कर अनैतिकता व चारित्रिक पतन के गर्त में न चले जाए।

२ आत्मज्ञान द्वारा एक व्यक्ति आत्म यानि ब्रह्म साक्षात्कार करते हुए अपने अस्तित्व और अपनी गतिविधियों के प्रति बहुत अधिक जागरूक रहने की प्रवृत्ति में ढलता है। इस तरह उसे ‘मैं‘ क्या ठीक कर रहा हूँ व क्या गलत कर रहा हूँ उसकी परख हो जाती है और वह मानव इसी प्रवृत्ति में ढल नित्य-प्रतिदिन अपने आप की परख करता हुआ आत्मनियंत्रण द्वारा आत्मसुधार करता जाता है। इस तरह वह जागरूक व्यक्ति विद्वान बन जाता है। जान लो कि एक विद्वान ही इस मिथ्या जगत की असलियत जान सकता है और इस तरह अविद्या धारणा व अविद्या प्रदान करने की क्रिया से बचे रह अपने यथार्थ में बना रह सकता है।ऐसा विद्वान अपने आचरण को सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष से मुक्त रखने हेतु, आत्मनिरीक्षण द्वारा, अपने अंत:करण की विशुद्धता बनाए रखते हुए, स्वयं ही अपना मार्गदर्शन यानि अपने हित या भविष्य के विषय में निश्चित करता है। इस प्रकार वह आत्मविश्वासी अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को पाने के लिए अपनी इच्छाओं और सांसारिक स्वार्थों के त्याग हेतु सदा आत्मविद्या की साधना में लीन रहता है।

३ परमात्मा गुणों का घर है। परमात्मा का बोध होने पर मस्तक की वह ताकी खुल जाती है जहाँ से आत्मज्ञान प्राप्त होता है। आत्मज्ञान द्वारा मानव ज्यों-ज्यों सद्‌गुणों को धारण करता जाता है त्यों-त्यों उसको अपने परमात्मा स्वरूप की पहचान होती जाती है। तात्पर्य यह है कि निज परमात्म स्वरूप की पहचान करते हुए उसे ऐसे लगने लगता है कि जो परमात्मा के गुण हैं वो गुण तो मुझ में भी हैं। इस तरह धीरे-धीरे उसे उस परमात्मा में व्यापत सम्पूर्ण गुण अपने लगने लगते हैं। तभी तो आत्म-परमात्मा का भेद मिट पाता है और वह अभेद हो जाता है। इस प्रकार उन गुणों के आधार पर एक गुणी व्यक्ति उस गुणेश्वर परमात्मा का सर्व-सर्व बोध कर पाता है व एक अच्छा इंसान बन जगत उद्धार हेतु हर प्रकार का पराक्रम दिखाने के योग्य बन जाता है। यही उसके जीवन में विजयी होने का प्रतीक होता है।

४ आत्मिक ज्ञान एक व्यक्ति को निज शक्ति का ज्ञान ही नहीं कराता वरन्‌ उसको धर्मानुसार प्रयोग करने की क्षमता भी प्रदान करता है ताकि वह आत्मबल का सदुपयोग करते हुए अपनी विकारों से रक्षा कर पाए।

५ आत्मिक ज्ञान अपने आप में वह सर्वश्रेष्ठ परमार्थिक धन है जिससे व्यक्ति एक तो सर्वोच्च सत्य यानि ब्रह्म और जीव के ज्ञान का बोध कर सकता है, दूसरा परमतत्व की साधना और ब्रह्म की प्राप्ति को ही सबसे श्रेष्ठ कर्त्तव्य मानते हुए परोपकार कमाना अति आवश्यक मानता है। यहाँ तक कि स्वार्थी धन भी नेक नीयती से कमाता व व्यय करता है। इस प्रकार उसके मन में स्वार्थ पनपने की कोई गुंजाइश ही शेष नहीं रहती और वह परमार्थिक कार्यों में ही जुटा रहता है।

६ आत्मज्ञान ही अपने आप में विवेकशक्ति है जो व्यक्ति को निज का, जगत का, व ब्रह्म का ज्ञान-विज्ञान विचार द्वारा धारण कर, अपना जीवन युक्तिसंगत व्यतीत करने के उपाय प्रदान करता है। तभी तो ऐसा व्यक्ति हर कार्य आत्मीयता से सिद्ध करते हुए सदा शांतमय व आनन्दमय बना रहता है और निर्लिप्तता से निर्विकारी जीवनयापन कर पाता है।

७ आत्मज्ञान प्राप्त करना आत्मसाक्षात्कार करने के लिए तपस्या है यानि सत्य की जानकारी प्राप्त करने हेतु अति आवश्यक है। यहाँ याद रखने की बात है कि परमात्मा ज्ञान से पूर्ण है इसलिए निज ब्रह्म स्वरूप न तो कर्म द्वारा और न ही ज्ञान-कर्म के मिश्रण से जाना जा सकता है। उसको जानने के लिए तो केवल अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त ज्ञान ही एकमात्र साधन है। तात्पर्य यह है कि ख़्याल ध्यान वल, ध्यान प्रकाश वल की युक्ति द्वारा ही हम अफुर अवस्था को धारण कर अपने प्रकाशित शाश्वत सत्य यानि यथार्थ स्वरूप का अपने अन्दर व सर्व जग अन्दर बोध कर सकते हैं। इसी से ही आत्मीयता का रिश्ता कायम हो सकता है और ‘हम सब एक हैं‘ इस सत्य का व एकता व एक अवस्था का भान हो सकता है। इस प्रकार अपना सत्य जानने के लिए हमें यह तपस्या करनी है। तभी आत्मज्ञान प्राप्त होगा। फिर हम अर्जित भौतिक ज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं कर सकेंगे और न ही अनैतिक बनेंगे।

अंतत: श्री सजन जी ने कहा कि एक आत्मज्ञानी ही परिपूर्ण इंसान के रूप में विकसित होकर अपने निज धर्म को पहचान उसे सुदढ़ता से वर्त्त-वर्त्ताव में ला सकता है। ऐसा मानव ही सत्यनिष्ठ व धर्मपरायण कहलाने के योग्य होता है। वह ही बहादुर, समझदार व बुद्धिमान कहलाता है क्योंकि वह विकारों से अपनी रक्षा खुद करने में सक्षम हो जाता है। इस तरह मिथ्या जगत के स्थान पर सत्य धारणा कर व वैसा ही वर्त्त-वर्त्ताव दिखा अंत में वह आत्मज्ञानी विजयी हो जाता है। अत: आप भी आत्मज्ञान प्राप्त कर ऐसे ही जीवनमुक्त विजयी इंसान बनो, यही हमारी शुभकामना है।

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